रविवार, 19 फ़रवरी 2017

पेड़ के नीचे बैठा हूँ

पेड़ के नीचे बैठा हूँ।मंदिर में हनुमान चालीसा चल रहा है।
"पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरत रूप, राम लखन सिया सहित ह्रदय बसहुँ सुर भूप।"
इधर एक गाने की आवाज आ रही है-
" हर पल यहाँ जीभर जियो
जो है समा कल हो ना हो--।"
इतने में एक गिलहरी मेरे पैर से चढ़, पैन्ट में घुस गयी है।मैं घबरा कर खड़ा हो जाता हूँ। पैन्ट हिलाता हूँ और वह और ऊपर चढ़ गयी है, कमर के पास, जहाँ पैन्ट बँधी होती है।मैं घबराहट में पैन्ट खोलता हूँ। उसे झटकता हूँ।फिर पीठ पर इस आशंका से हाथ फेरता हूँ कि कहीं वह कमीज के नीचे न हो।उसने काटा नहीं क्योंकि वह बेचारी अपनी जान बचाने में लगी थी। फिर नीचे देखा तो पाया कि उसकी पूँछ का एक भाग नीचे गिरा है और वह कुछ दूरी पर फिर व्यस्त हो चुकी है। हो सकता है उसने मेरे पैर को पेड़ समझा हो।पार्क में बैठे लोगों को मेरा व्यवहार अजीब लग रहा होगा।अब मैंने पैंट के मुँह बंद कर दिये हैं,और गिलहरी कांड पर लिख रहा हूँ।हल्का सा पसीना माथे पर जो आया था वह अब सूख चुका है।गिलहरी की पूँछ बगल में पड़ी है।उसकी शोभा बिगड़ गयी है जैसे प्यार के बिना मनुष्य की शोभा कम हो जाती है।
**महेश रौतेला

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