गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

आओ,झगड़ लें कुछ देर चाय पर

 आओ,झगड़ लें कुछ देर चाय पर

उस शेर पर जो मरा नहीं है,

उस खेत पर जो बंजर नहीं है

उस पहाड़ पर जहाँ ठंडी हवा बह रही है,

उस समुद्र पर जहाँ मछलियां खेल रही हैं

उस हवा पर जो सबको मिल रही है,

उस पानी पर जो अमृत समान है,

उस सत्ता पर जिसको चुना है

फिर आशीर्वाद दे दें, बच्चों की तरह

या दुत्कारते रहें बिगड़े बच्चे की तरह।


आओ,झगड़ने की आदत बना लें,

आखिर झगड़ने में भी विजय का विपुल स्वाद है।

** महेश रौतेला


सोमवार, 23 नवंबर 2020

प्रिय महाविद्यालय

 प्रिय महाविद्यालय,

    वर्षों बाद तुम्हें चिट्ठी लिखने का मन हो रहा है। जो तुम्हारे सान्निध्य में आया तुमने अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्ञान दिया।कई सफल रहे होंगे और कई सफल होने जा रहे होंगे। धुंध आयी और चली गयी। मैंने तुम्हारे बारे में छुटपुट कुछ लिखा होगा और अन्य सबने अपनी तरह। किसी को तुम्हारा सानिध्य सुन्दर लगा होगा, रोमांसभरा, रोमांचक, अद्भुत, अलौकिक। चार साल सापेक्षता का सिद्धांत लिए कब गुजर जाते हैं, पता ही नहीं लगता।आज भी लिखने में अच्छा लगता है-

"हथेली जो तुमने छूयी

निखरी हुई है,

दूसरे हाथ से छू

बार -बार जाँचता हूँ

कितने निकट हो तुम।"

एक ओर उच्च शैक्षणिक वातावरण दूसरी ओर छुट्टियों में गाँव जाने की अनुभूतियां।

तब गांवों में साक्षरता बहुत कम थी।सन छियतर की बात होगी।उसका पति दिल्ली में नौकरी करता था।वह गांव में रहती थी।पढ़ी लिखी नहीं थी।यदि थोड़ी बहुत होगी भी तो चिट्ठी लिखने में असमर्थ थी। लेकिन पति के घर आने पर अधिक किरशाण(कार्यकुशल) हो जाती थी।उसने एक दिन मुझसे कहा," एक चिट्ठी लिख दो, मेरी।" वह पत्र और कलम ले आयी। मैंने कलम और पत्र हाथ में लिये और पूछा क्या लिखूं। वह सोच में डूब गयी। फिर मैं बोला ,लिख दूँ," मेरे प्रेमी, प्राणनाथ।" यह सुनकर वह शरमा गयी।उसके गाल लाल हो गये।वह मुस्कुराते हुये बोली," हाँ, कुछ ऐसा ही लिख दो।" उन दिनों पति का नाम नहीं लिया जाता था।पता नहीं यह परंपरा कब शुरू हुई? अब तो नाम लेना आम बात है। फिर घर की सब बातें चिट्ठी में लिखता गया और गाँव की मोटी मोटी खबरें भी।जैसे बर्फ पिघल चुकी है। बच्चे ठीक हैं। नारंगी पक चुकी हैं।वे बातें भी जो जंगल, घास,जानवरों की होती हैं और जिन्दगी सी जुड़ी होती हैं। वह बताती गयी,मैं लिखता गया जैसे वेदव्यास जी बोलते रहे और गणेश जी लिखते रहे।अन्त में फिर पूछा लिख दूँ," तुम्हारी प्रियसी।" तो वह  फिर शरमा गयी। इस बार जब गाँव जाना हुआ तो उनके बारे में पूछताछ की। पता चला वह गंभीर रूप से बीमार है।चल फिर नहीं सकती है।बोल नहीं पाती है। इशारों में कुछ कहती है।मेरी आँखों में उसका खुशहाल अतीत जीवंत हो उठा। साथ में जीवन का वसंत और विवशता भी।

मेरे प्रिय महाविद्यालय

"हमारे जमाने  की लड़कियां 

बोलती  नहीं थीं, 

मन ही मन में 

सुनती,सुनाती थीं।

आज वे हमारी  तरह

बूढ़ी,बुजुर्ग हो गयी होंगी,

राजा-रानी की कहानियां 

किसी न किसी को बताती,

अपने जमाने के द्वार खोल

खिड़कियों से झांकती,

खोया कुछ खोजती

सदाबहार बनी यादों को

काटती-छांटती,

साड़ी की तरह लपेट लेती होंगी।

पगडंडियां जो सड़क बन चुकी,

नदियां जो सिकुड़ चुकी,

वन जो कट चुके, 

शहर जो  घने हो गये,

सबको पकड़ती,

हमारे जमाने  की लड़कियां 

किसी न किसी को बताती होंगी।

हमारे जमाने  की लड़कियां 

बोलती  नहीं थीं, 

मन ही मन में 

सुनती,सुनाती थीं।"

तुममें जब प्रवेश लिया तो पहली बार अंग्रेजी माध्यम की तरलवार गर्दन पर पड़ी। क्योंकि बारवीं तक विज्ञान हिन्दी में ही पढ़ा था। खैर,चक्रव्यूह में अभिमन्यु बन कर प्रवेश लगभग सभी को करना था। धृतराष्ट्र यदि शासक हो तो सातों महारथी अभिमन्यु को मार ही देंगे।चक्रव्यूह से बाहर निकल आया,कुछ साथियों के साथ। 

मेरे प्रिय महाविद्यालय, तुम्हारे बारे में सबके अपने-अपने अनुभव और अनुभूतियां हैं। जो मैंने इंटरनेट पर पढ़ी और गुनी हैं। बटरोही सर, स्मिता जी, मेवाड़ी जी और अपने सहपाठियों आदि के संस्मण मुझे जिज्ञासु बनाये रखते हैं तुम्हारे बारे में। मैं अपने अनुभव और अनुभूतियों को याद करता हूँ। भौतिक विज्ञान  प्रयोगशाला , रसायन विज्ञान प्रयोगशाला के बाहर हाड्रोजन सल्फाड की गन्ध। बहुत सी घटनाएं याद हैं और बहुत सी भूल गया हूँ। भूलचूक माफ करना। बी.एसी. में साथ पढ़े साथी जो फेसबुक से फिर मिल गये कहते हैं ," यार हम मल्लीताल से तल्लीताल साथ-साथ घूमने जाते थे।लेकिन मुझे याद नहीं आता है और मैं योंही "हाँ" बोल देता हूँ। अल्का होटल के आगे और नैना देवी मन्दिर के पास एक फिल्म की शूटिंग की याद है। एक बार कालेज से मल्लीताल जाते समय सेंटमेरी की लड़कियों ने मेरा रास्ता रोक दिया था, वे लगभग नौ-दस रही होंगी। मेरी छोटी बहिन की आयु की होंगी, सब। मेरे हाथ-पाँव फूल गये थे, तब। लगभग दो-तीन मिनट यह सब चला था फिर एक किनारे से जगह मिल गयी। वे खूब हँस रही थीं और मैं राहत महसूस कर रहा था। संख्या में बल होता है,ऐसा लगा। 

बी. एसी. से एम.एसी. में आते- आते बहुत परिवर्तन आ चुके थे। तब मैं रसायन विज्ञान परिषद का उपाध्यक्ष और अध्यक्ष रहा था। सांस्कृतिक कार्यक्रम जो ए. एन. सिंह हाँल में होते थे उसमें नाटक हमारी ओर से भी प्रस्तुत हुए थे। उस समय लड़कियां सामान्यतः नाटकों में अभिनय नहीं करती थीं। अतः लड़के ही लड़कियों का अभिनय करते थे। उस समय रामलीलाओं में भी यही प्रचलन था।लघंम छात्रावास में मेरा सहपाठी रहता था और मैं प्रायः उससे मिलने एस.आर.और के.पी. छात्रावासों के रास्ते जाया करता था। दोनों लड़कियों के छात्रावास हैं। तब मधुर कंठों से समधुर शब्द बाण सुनने को मिल जाते थे। जैसे "दिल दिया दर्द लिया" आदि। वैसे यह फिल्म का नाम है। १९७७ में एक आन्दोलन हुआ था तब मैंने भी कला संकाय के आगे भाषण दिया था। उसके कुछ दिन बाद हम दो साथी एस. आर. छात्रावास के सामने वाली पगडण्डी से गुजर रहे थे। लड़कियां छात्रावास के आगे बनी दीवाल(खोयी) पर बैठी थीं। जैसे ही हम ठीक उनके नीचे से जाती पगडण्डी से जा रहे थे तो सब बोल उठी," हमारे नये अध्यक्ष(प्रेजिडेंट) जा रहे हैं। आदि।" संख्या बल आनन्द भी देता है। 

प्रिय महाविद्यालय, जब फेसबुक आया तो पुराने सहपाठियों को ढूंढने का एक माध्यम मिल गया।  खुशी का एक रास्ता खुल गया। लेकिन अपवाद भी निकले। हमारी एक सहपाठी लड़की थी ,वह तब दुबली-पतली थी,जो सामान्यतः होता है उस उम्र में। उसने अपनी वर्तमान फोटो के साथ पृष्ठभूमि में पहले की फोटो लगायी थी। वर्तमान फोटो में वह पहिचान में नहीं आ रही थी। तो मैंने कुछ लिख दिया था तो उसे शायद लगा कि मैं उसे मोटी कह रहा हूँ! तो उसने अंग्रेजी में लिखकर मुझे पहिचानने में ढुलमुलपन की नीति दिखायी। सहपाठी लड़कियां जितनी मिली सब अंग्रेजी में ही उत्तर देती हैं,तो माहौल शुष्क हो जाता है। हम ही राष्ट्रवादी बने रहे , तब भी अब भी।मैं तो १९९९ में जब डलास( यूएसए) गया तब भी अपनी हिन्दी कविता जो "गुजरात वैभव" में छपी थी वहाँ हमारे मेजबान को दे आया।और हमने उन्हें उसका अंग्रेजी अनुवाद भी बताया। 

जब मैं अध्यक्ष था परिषद का तो एम.एसी. प्रथम वर्ष की लड़कियां(शायद चार थीं) हमें मिलने पर मुझे नमस्कार करती थीं।एक दिन उनको आता देख मेरा दोस्त बोला," मैं तेरी इज्जत मिट्टी में मिलाता हूँ, यदितुझे नमस्कार करेंगी तो।" एक प्रफुल्लित  मजाक का अपना आनन्द होता है। 

परिषद के सत्र उद्घाटन समारोह में खगोल शास्त्र(एस्ट्रोफिजिक्स) पर लेक्चर देने के लिए  बेधशाला से वरिष्ठ वैज्ञानिक महोदय को बुलाया गया था। उसमें एम.एसी. प्रथम वर्ष के एक छात्र ने एक गाना गाया था,बहुत सुन्दर। २०१८ में, व्हाट्सएप पर आये छ गानों में वह गाना भी था। जब मेरे संपर्क के तब के सहपाठियों  से मैंने उस गाने को पहिचानने की बात की तो लड़कों को वह याद था। 

मेरे प्रिय, जब भी तुम्हारी यादों का समुद्र छलछलाता है,मैं किनारे बैठ कर उनकी लहरों को देखता हूँ। बहुत बार दोहराव भी हो जाता है लेकिन मन में जिज्ञासा बनी रहती है। 


***महेश रौतेला

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

मैं पिता बन जाऊँ

 मैं पिता बन जाऊँ

और थक कर घर आऊँ

तो तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ।

राजा-रानी की नहीं

राजकुमार-राजकुमारी की नहीं,

मजदूर-मालिक की नहीं

गरीब-अमीर की नहीं,

बस, एक स्नेहिल पिता होने की।


मैं कहूँ और तुम सुनो,

तुम्हारे कान पकड़ दूँ

कि तुम सुन सको,

तुम्हारी आँखें खोल दूँ

कि तुम देख सको,

तुम्हारा मन पकड़ लूँ

कि तुम खेल सको,

बस,एक स्नेहिल पिता बन अशीषता रहूँ।


* महेश रौतेला

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

रूको,मैंने अभी प्यार नहीं किया

रूको,मैंने अभी प्यार नहीं किया
हिमालय से भेंट नहीं हुयी,
गंगा में स्नान नहीं किया
ऊँचे वृक्ष नहीं लगाये,
सुगंधित फूल के निकट नहीं गया
बड़ी गिनती पूरी नहीं की है,
शान्ति तक पहुँचा नहीं हूँ।

रूको,अभी मैंनेआकाश के
सहस्रों नक्षत्र नहीं देखे हैं,
सभी सुखों से साक्षात्कार नहीं हुआ है
दुखों का परिचय छूटा हुआ है,
बहुत से शब्दों से अनभिज्ञ हूँ
बड़ी-बड़ी युद्ध विभीषिकाओं को समझना शेष है।

रूको,मेरी उत्पत्ति अभी गूढ़ है
अभी मुझे मत ललकारो,
मैं वहाँ नहीं पहुँचा हूँ
जहाँ पहुँचना चाहिए,
अभी मेरे हाथ में हथियार हैं
जो चोट पहुँचा सकते हैं,
अभी रात शेष है
आदि जगमगती सुबह में देर है।

*महेश रौतेला

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

मैंने सोचा

मैंने सोचा
सूरज सत्य लेकर आयेगा
जगाने के लिये
और प्रकाश में नहा धो लूँगा।
हमने सोचा
नदी सत्य लेकर आयेगी
साफ जल के साथ
और तीर्थों पर डुबकी ले लेंगे।
हमने सोचा
पहाड़ सत्य लेकर आयेगा
कई कई बार हमारे लिये
ऊँचे शिखरों से।
हमने सोचा
आकाश सत्य लेकर आयेगा
असंख्य नक्षत्रों के साथ
और सतत उसे निहारते रहेंगे।
मैंने सोचा
प्यार सत्य लेकर आयेगा
अपने परायों  के संग
और कुछ अनमोल क्षण जी लेंगे।
मैंने सोचा
वृक्ष सत्य लेकर आयेगा
फल- फूलों से लदकर।
हमने सोचा
हवा सत्य लेकर आयेगी
तो जीवन शतायु हो लेगा।
फिर सोचा
 कुछ सत्य हम में भी होगा
सूरज सा, नदी सा, पहाड़ सा,
प्यार सा, हवा सा, आकाश सा
वृक्ष सा और मनुष्य सा।

*महेश रौतेला

शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

दीक्षा

दीक्षा:
हम सात लोग एक दिन पहले ही एक्जीक्यूटिव आवास,देहरादून पहुंच गये थे। शाम को एक कमरे में बैठे थे। सब अपनी अपनी बातें कह रहे थे। धीरे-धीरे साधारण वार्तालाप बहस में बदल गयी। उड़ीसा से आया एक अधिकारी अंग्रेजों की प्रशंसा कर रहा था। बहस पक्ष और विपक्ष के कारण गरम होने लगी थी। मैंने वातावरण को मधुर बनाने के लिए अपनी दो छोटी-छोटी रचनाएं सुनायी।
"आँधियां हमने भी बनायी
एक बार नहीं, कई-कई बार,
तूफान हमने भी रचे
एक बार नहीं, कई-कई बार।"

"प्यार हमने भी किया
एक बार नहीं, कई-कई बार,
दुनिया हमने भी देखी
एक बार नहीं, कई-कई बार।"
वातावरण सहज हो गया था। कोच्चि(केरल) से आयी दीक्षा मुझे गौर से देख रही थी। मैंने उससे पूछा," कैसी लगी?" उसने केवल सिर हिलाया और हल्के से मुस्करायी। दूसरे दिन सभी बीस अधिकारी आ गये थे। प्रशिक्षण आरम्भ हो गया था। देहरादून का मौसम बहुत सुहावना हो रहा था। दिन में एक बजे खाना खाने जाते थे। प्रशिक्षण व्यवस्था करने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक दिन कहा," कुछ भी कहो, जिन्दगी जीने योग्य होती है।" उनका यह वाक्य मुझे याद रह गया है। सुबह योग की कक्षायें होती थीं। हफ्ते में तीन दिन मनोविज्ञान की कक्षायें भी होती थीं। मनोविज्ञान के प्रोफेसर की बातें काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती थीं,तब। प्रशिक्षण छ महीने का था। बीच-बीच में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते थे। हमने एक नाटक किया था।जिसमें यमराज, चित्रगुप्त, पंडित,वकील आदि पात्र थे।नाटक में लोगों के कर्मों के अनुसार उन्हें स्वर्ग और नरक भेजा जाता था।
हमारे कमरे आमने-सामने थे। एक दिन वह मेरे कमरे में आयी और कुर्सी के सामने पड़ी मेरी डायरी पढ़ने लगी। फिर बोली," अच्छा लिखते हो।" मैंने पूछा क्या पढ़ा। वह पढ़ने लगी-
"जीवन में कम से कम एक बार प्यार कीजिए,
ठंड हो या न हो, उजाला हो या न हो,
अनुभूतियां शिखर तक जाएं या नहीं,
रास्ता उबड़-खाबड़ हो या सरल,
हवायें सुल्टी बहें या उल्टी बहें,
पगडण्डियां पथरीली हों या कटीली,
कम से कम एकबार दिल को खोल दीजिए।
तुम्हारी बातें कोई सुने या न सुने,
तुम कहते रहो ," मैं प्यार करता हूँ।"
तुम बार-बार आओ और गुनगुना जाओ।
तुम कम से कम एक बार सोचो,
एक शाश्वत ध्वनि के बारे में जो कभी मरी नहीं,
एक अद्भुत लौ के बारे में जो कभी बुझी नहीं,
उस शान्ति के बारे में.जो कभी रोयी नहीं,
कम से कम एकबार प्यार को जी लीजिए।
यदि आप प्यार कर रहे हैं तो अनन्त हो रहे होते हैं,
कम से कम एक बार मन को फैलाओ डैनों की तरह,
बैठ जाओ प्यार की आँखों में चुपचाप,
सजा लो अपने को यादगार बनने के लिए,
सांसों को खुला छोड़ दो शान्त होने के लिए।
एकबार जंगली शेर की तरह दहाड़ लो केवल प्यार के लिए,
लिख दो किसी को पत्र,पत्रऔर पत्र,
नहीं भूलना लिखना पत्र पर पता और अन्दर प्रिय तुम्हारा,
लम्बी यात्राओं पर एकबार निकल लो केवल प्यार के लिए।"
फिर बोली," बहुत अच्छी है।" मैंने उससे पूछा," घर में कौन-कौन है?" वह बोली एक भाई है और माँ है। मैं बोला खतरा तो है। वह मुस्कराई और बोली छोटा है। मैंने गहरी सांस ली। उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा। हम साथ-साथ नाश्ता करने मेस में गये। वह मेरे सामने बैठी थी। और एकटक मुझे देख रही थी। मैं उसकी ओर बीच-बीच में देख रहा था। मेरा हृदय तेज चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि कहीं प्यार न हो जाय। वह देखे जा रही थी,मैं बार-बार उसे नजर मिला कर नजर झुका रहा था।
उस दिन समूह फोटोग्राफी होनी थी।वह मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी। एक सप्ताह बाद फोटो आयी। फोटो देखकर वह बोली," आपकी फोटो सबसे सुन्दर आयी है।" मैं बोला तुम्हारी भी बहुत अच्छी आयी है। उसने मेरे हाथ में मूंगफली रखी।और हम खाते-खाते हाँस्टल की ओर चल पड़े।
दो माह बाद नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना। सभी लोग बच्चे बन गये थे। बस में खूब उधम मचाया गया। सभी ने अपनी- अपनी एक्टिंग का जौहर दिखाया। मैंने दीक्षा से कहा," मैं नैनीताल में पढा़ हूँ।" नैनीताल पहुंच कर वह बोली," यह तो बहुत ही सुन्दर जगह है।" मैंने कहा पहले बहुत सी फिल्मों की शूटिंग यहाँ होती थी।  सब लोग एक ही होटल में रूके थे। नैनीताल में ठंडा था। वह मेरे सामने अपने बाल बनाती थी।उसके बाल बहुत लम्बे थे। मैं उससे उनकी प्रशंसा करता था।वह मुस्करा देती थी। मैं नैनीताल के किस्से-कहानियां उसे सुनाता रहा।
 वह उत्सुकता से सब सुनती रही, झील उसके सामने जगमगा रही थी। नैनीताल का पूरा प्रकाश संध्याकाल में परावर्तित होकर अभूतपूर्व दृश्य उत्पन्न कर रहा था।उसने कहा पर्यावरण को अभी से हमें बचाने के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए। हम होटल से निकल कर नैना देवी के मन्दिर की ओर जा रहे थे। तभी साथियों ने नौकाविहार का मन बनाया। नाव में चढ़ते समय अशोक ने दीक्षा का हाथ पकड़ा उसे नाव में बैठाने के लिए,नाव डगमगा रही थी और वह डर रही थी कि कहीं गिर न जाय। मेरे मन में अव्यक्त एक जलन हो रही थी, यह सब देखकर। वह मेरे पास आकर बैठ गयी और मेरा मन शान्त हो गया। मैंने उसे बताया फिल्म "वक्त" के एक गाने की शूटिंग इसी झील में हुई थी। मौसम साफ था। एक अपूर्व आनन्द की सृष्टि हो रही थी। लग रहा था प्रकृति जब खुश होती है तो दिल खोलकर नाचती है अपने मनुष्यों, वृक्षों,पक्षियों, पहाड़ों, रास्तों, आकाश, धरती आदि सबके साथ। तल्लीताल आते ही नाव से उतरते समय उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ा और मेरी जलन मानो कहीं खो गयी थी। दो दिन नैनीताल घूमने के बाद हम वापिस देहरादून लौट आये। छ माह कब बीत गये पता ही नहीं चला। अन्तिम दिन सबके पते की एक छोटी सी डायरी बना कर सबको वितरित की गयी। जाने के दिन वह बोली," अच्छा चलती हूँ। बहुत अच्छा समय बीता। मैं प्रतीक्षा करूँगी।" मैंने कहा," बहुत बुरा लग रहा है। पता नहीं फिर कब मिलेंगे।"  मैंने आगे कहा," शादी का विचार तो नहीं है?" वह मुस्करा कर चल दी।
सालों बाद मैंने उसे फेसबुक पर देखा।उसने पृष्ठभूमि में देहरादून की अपनी फोटो डाली हुई थी, उसके आधार पर मैं उसे पहिचान गया। और परिचय में अविवाहित लिखा था। मैंने दोस्ती का निवेदन भेजा। एक महिने बाद उसने उसे स्वीकार किया और पूछा," कहाँ हो आजकल? आपने याद किया,अच्छा लगा। अगले साल रिटायर हो रही हूँ।"  मैंने लिखा," सेवानिवृत्त हो चुका हूँ। अल्मोड़ा में हूँ। कभी आना।"
मैंने फोन पर पूछा,"  कैसी हो?शादी नहीं की क्या?" वह बोली," ठीक हूँ। इंतजार कर रही हूँ।" मैंने कहा," अब कर लीजिए।" वह जोर से हँस दी। ऐसा लगा जैसे ठंडी हवा का एक झोंका मुझको स्पर्श करता दूर निकल गया है।

**महेश रौतेला

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

सोचा न था


सोचा न था

सोचा न था
इस वर्ष बर्फ गिरेगी
सरहद पर युद्ध होगा
रेल दुर्घटना होगी
नदी डूब जायेगी
संध्या खो जायेगी
सुबह थक जायेगी
लोग आपस में लड़ेंगे
दोस्तों का कत्ल होगा
मन बिखर जायेगा
धूप मुरझा जायेगी
वसंत रूठेगा
भाग्य फूट-फूट कर रोयेगा।
सोचा न था
इस वर्ष ग्रहण लगेगा
आतंक उठेगा
भूकम्प आयेगा
विश्वास डगमगा जायेगा
परिवार के परिवार खो जायेंगे।
हरियाली सूखेगी
विचार ठूंठ बनेंगे
संस्कृति रूठेगी
सूखा पड़ाव डालेगा
अंधकार बरबस लौटेगा
आत्मीयता लुप्त होगी।
मनुष्य के ऊपर
युद्ध मडरायेगा
बिल्ली रास्ता काट
अपशकुन का अंधविश्वास जगायेगी,
ऐसे में सोचा न था
संध्या होते होते
जीवन से प्यार हो जायेगा।
*महेश रौतेला