मैं पिता बन जाऊँ
और थक कर घर आऊँ
तो तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ।
राजा-रानी की नहीं
राजकुमार-राजकुमारी की नहीं,
मजदूर-मालिक की नहीं
गरीब-अमीर की नहीं,
बस, एक स्नेहिल पिता होने की।
मैं कहूँ और तुम सुनो,
तुम्हारे कान पकड़ दूँ
कि तुम सुन सको,
तुम्हारी आँखें खोल दूँ
कि तुम देख सको,
तुम्हारा मन पकड़ लूँ
कि तुम खेल सको,
बस,एक स्नेहिल पिता बन अशीषता रहूँ।
* महेश रौतेला