शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

दीक्षा

दीक्षा:
हम सात लोग एक दिन पहले ही एक्जीक्यूटिव आवास,देहरादून पहुंच गये थे। शाम को एक कमरे में बैठे थे। सब अपनी अपनी बातें कह रहे थे। धीरे-धीरे साधारण वार्तालाप बहस में बदल गयी। उड़ीसा से आया एक अधिकारी अंग्रेजों की प्रशंसा कर रहा था। बहस पक्ष और विपक्ष के कारण गरम होने लगी थी। मैंने वातावरण को मधुर बनाने के लिए अपनी दो छोटी-छोटी रचनाएं सुनायी।
"आँधियां हमने भी बनायी
एक बार नहीं, कई-कई बार,
तूफान हमने भी रचे
एक बार नहीं, कई-कई बार।"

"प्यार हमने भी किया
एक बार नहीं, कई-कई बार,
दुनिया हमने भी देखी
एक बार नहीं, कई-कई बार।"
वातावरण सहज हो गया था। कोच्चि(केरल) से आयी दीक्षा मुझे गौर से देख रही थी। मैंने उससे पूछा," कैसी लगी?" उसने केवल सिर हिलाया और हल्के से मुस्करायी। दूसरे दिन सभी बीस अधिकारी आ गये थे। प्रशिक्षण आरम्भ हो गया था। देहरादून का मौसम बहुत सुहावना हो रहा था। दिन में एक बजे खाना खाने जाते थे। प्रशिक्षण व्यवस्था करने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक दिन कहा," कुछ भी कहो, जिन्दगी जीने योग्य होती है।" उनका यह वाक्य मुझे याद रह गया है। सुबह योग की कक्षायें होती थीं। हफ्ते में तीन दिन मनोविज्ञान की कक्षायें भी होती थीं। मनोविज्ञान के प्रोफेसर की बातें काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती थीं,तब। प्रशिक्षण छ महीने का था। बीच-बीच में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते थे। हमने एक नाटक किया था।जिसमें यमराज, चित्रगुप्त, पंडित,वकील आदि पात्र थे।नाटक में लोगों के कर्मों के अनुसार उन्हें स्वर्ग और नरक भेजा जाता था।
हमारे कमरे आमने-सामने थे। एक दिन वह मेरे कमरे में आयी और कुर्सी के सामने पड़ी मेरी डायरी पढ़ने लगी। फिर बोली," अच्छा लिखते हो।" मैंने पूछा क्या पढ़ा। वह पढ़ने लगी-
"जीवन में कम से कम एक बार प्यार कीजिए,
ठंड हो या न हो, उजाला हो या न हो,
अनुभूतियां शिखर तक जाएं या नहीं,
रास्ता उबड़-खाबड़ हो या सरल,
हवायें सुल्टी बहें या उल्टी बहें,
पगडण्डियां पथरीली हों या कटीली,
कम से कम एकबार दिल को खोल दीजिए।
तुम्हारी बातें कोई सुने या न सुने,
तुम कहते रहो ," मैं प्यार करता हूँ।"
तुम बार-बार आओ और गुनगुना जाओ।
तुम कम से कम एक बार सोचो,
एक शाश्वत ध्वनि के बारे में जो कभी मरी नहीं,
एक अद्भुत लौ के बारे में जो कभी बुझी नहीं,
उस शान्ति के बारे में.जो कभी रोयी नहीं,
कम से कम एकबार प्यार को जी लीजिए।
यदि आप प्यार कर रहे हैं तो अनन्त हो रहे होते हैं,
कम से कम एक बार मन को फैलाओ डैनों की तरह,
बैठ जाओ प्यार की आँखों में चुपचाप,
सजा लो अपने को यादगार बनने के लिए,
सांसों को खुला छोड़ दो शान्त होने के लिए।
एकबार जंगली शेर की तरह दहाड़ लो केवल प्यार के लिए,
लिख दो किसी को पत्र,पत्रऔर पत्र,
नहीं भूलना लिखना पत्र पर पता और अन्दर प्रिय तुम्हारा,
लम्बी यात्राओं पर एकबार निकल लो केवल प्यार के लिए।"
फिर बोली," बहुत अच्छी है।" मैंने उससे पूछा," घर में कौन-कौन है?" वह बोली एक भाई है और माँ है। मैं बोला खतरा तो है। वह मुस्कराई और बोली छोटा है। मैंने गहरी सांस ली। उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा। हम साथ-साथ नाश्ता करने मेस में गये। वह मेरे सामने बैठी थी। और एकटक मुझे देख रही थी। मैं उसकी ओर बीच-बीच में देख रहा था। मेरा हृदय तेज चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि कहीं प्यार न हो जाय। वह देखे जा रही थी,मैं बार-बार उसे नजर मिला कर नजर झुका रहा था।
उस दिन समूह फोटोग्राफी होनी थी।वह मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी। एक सप्ताह बाद फोटो आयी। फोटो देखकर वह बोली," आपकी फोटो सबसे सुन्दर आयी है।" मैं बोला तुम्हारी भी बहुत अच्छी आयी है। उसने मेरे हाथ में मूंगफली रखी।और हम खाते-खाते हाँस्टल की ओर चल पड़े।
दो माह बाद नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना। सभी लोग बच्चे बन गये थे। बस में खूब उधम मचाया गया। सभी ने अपनी- अपनी एक्टिंग का जौहर दिखाया। मैंने दीक्षा से कहा," मैं नैनीताल में पढा़ हूँ।" नैनीताल पहुंच कर वह बोली," यह तो बहुत ही सुन्दर जगह है।" मैंने कहा पहले बहुत सी फिल्मों की शूटिंग यहाँ होती थी।  सब लोग एक ही होटल में रूके थे। नैनीताल में ठंडा था। वह मेरे सामने अपने बाल बनाती थी।उसके बाल बहुत लम्बे थे। मैं उससे उनकी प्रशंसा करता था।वह मुस्करा देती थी। मैं नैनीताल के किस्से-कहानियां उसे सुनाता रहा।
 वह उत्सुकता से सब सुनती रही, झील उसके सामने जगमगा रही थी। नैनीताल का पूरा प्रकाश संध्याकाल में परावर्तित होकर अभूतपूर्व दृश्य उत्पन्न कर रहा था।उसने कहा पर्यावरण को अभी से हमें बचाने के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए। हम होटल से निकल कर नैना देवी के मन्दिर की ओर जा रहे थे। तभी साथियों ने नौकाविहार का मन बनाया। नाव में चढ़ते समय अशोक ने दीक्षा का हाथ पकड़ा उसे नाव में बैठाने के लिए,नाव डगमगा रही थी और वह डर रही थी कि कहीं गिर न जाय। मेरे मन में अव्यक्त एक जलन हो रही थी, यह सब देखकर। वह मेरे पास आकर बैठ गयी और मेरा मन शान्त हो गया। मैंने उसे बताया फिल्म "वक्त" के एक गाने की शूटिंग इसी झील में हुई थी। मौसम साफ था। एक अपूर्व आनन्द की सृष्टि हो रही थी। लग रहा था प्रकृति जब खुश होती है तो दिल खोलकर नाचती है अपने मनुष्यों, वृक्षों,पक्षियों, पहाड़ों, रास्तों, आकाश, धरती आदि सबके साथ। तल्लीताल आते ही नाव से उतरते समय उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ा और मेरी जलन मानो कहीं खो गयी थी। दो दिन नैनीताल घूमने के बाद हम वापिस देहरादून लौट आये। छ माह कब बीत गये पता ही नहीं चला। अन्तिम दिन सबके पते की एक छोटी सी डायरी बना कर सबको वितरित की गयी। जाने के दिन वह बोली," अच्छा चलती हूँ। बहुत अच्छा समय बीता। मैं प्रतीक्षा करूँगी।" मैंने कहा," बहुत बुरा लग रहा है। पता नहीं फिर कब मिलेंगे।"  मैंने आगे कहा," शादी का विचार तो नहीं है?" वह मुस्करा कर चल दी।
सालों बाद मैंने उसे फेसबुक पर देखा।उसने पृष्ठभूमि में देहरादून की अपनी फोटो डाली हुई थी, उसके आधार पर मैं उसे पहिचान गया। और परिचय में अविवाहित लिखा था। मैंने दोस्ती का निवेदन भेजा। एक महिने बाद उसने उसे स्वीकार किया और पूछा," कहाँ हो आजकल? आपने याद किया,अच्छा लगा। अगले साल रिटायर हो रही हूँ।"  मैंने लिखा," सेवानिवृत्त हो चुका हूँ। अल्मोड़ा में हूँ। कभी आना।"
मैंने फोन पर पूछा,"  कैसी हो?शादी नहीं की क्या?" वह बोली," ठीक हूँ। इंतजार कर रही हूँ।" मैंने कहा," अब कर लीजिए।" वह जोर से हँस दी। ऐसा लगा जैसे ठंडी हवा का एक झोंका मुझको स्पर्श करता दूर निकल गया है।

**महेश रौतेला